- 58 Posts
- 606 Comments
योग और अध्यात्म एक दुसरे के पूरक हैं क्योंकि अध्यात्म का पथ प्रदर्शन योग की निरंतर साधना से ही संभव है। योगी व्यक्ति योग साधना द्वारा शरीर, मन, और चरित्र की शक्ति का विकास करता है, जिससे वह सहस, ज्ञान, स्थिरता, खारापन एवं सादगी प्राप्त करता है। योगी परमात्मा की प्राप्ति (खोज) के लिए आकाश की ओर नहीं ताकता; कारण की अंतरात्मा के रूप में जाना गया वह उसके अन्दर ही है। अतः उस आकाश को वो अपने अन्दर ही पाता है। शरीर कहाँ प्रारंभ होता है और मन कहाँ प्रारंभ होता है? मन की समाप्ति कहाँ है और आत्मा का प्रारंभ कहाँ है? इस प्रकार से इसका विभाजन असंभव है क्योंकि शरीर और आत्मा तो एक दुसरे के पूरक हैं।
योग के अर्थ को बताते हुए भगवन श्री कृष्ण भगवदगीता में अर्जुन से कहते हैं –
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनञ्जय: ।
सिध्यस्थसिद्धयो: समोभुत्व: समत्वं योग उच्च्यते ।।
अर्थात हे धनञ्जय, तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में सामान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित होकर कर्त्तव्य कर्मों को कर। ‘समत्व’ ही योग कहलाता है, अर्थात व्यक्ति द्वारा जो कुछ भी कर्म किया जाये उसके होने न होने (लाभ-हानि) आदि में स्थिर भाव होना ही समत्व कहलाता है। जो योग की अध्यात्मिक सीढ़ी है।
योग और अध्यात्म का उतना ही महत्व होता है, जितना किसी कार्य के अंत और परिणाम का, पतंजलि द्वारा भी योग के द्वारा आध्यात्मिकता की ओर जाने के आठ मार्ग बताये गए हैं,
ये हैं यम,नियम, आसन, प्राणायाम, और प्रत्याहार, तथा ध्यान, धारणा एवं समाधी।
यम और नियम योगी के विकारों तथा भावनाओं को नियंत्रित रखते हैं।
आसन शरीर को सुदृढ़ एवं स्वस्थ तथा प्रकृति के साथ सामंजस्य पूर्ण रखते हैं। (ये प्रथम तीन अवस्थाएं बहिरंग हैं)
आगे की दो अवस्थाएं प्राणायाम और प्रत्याहार साधक को साँसों का सञ्चालन सिखाती हैं जिनसे मन नियंत्रित होता है, तब मनुष्य स्वयं को वासना के दासत्व से मुक्त कर पाता है। (इसीलिए ये दोनों अवस्थाएं अन्तरंग कहलाती हैं।)
धारणा, ध्यान और समाधि योगी को उसकी आत्मा के अंतर्मन के गहन स्थल में ले जाती हैं, जिससे अब वह परमात्मा की खोज में भटकता नहीं है क्योंकि अब उसे बोध हो जाता है कि जिसे वेह अंतरात्मा के रूप में जनता था “वह” उसमें ही है।
परम गहन ध्यान की अवस्था से ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों एक हो जाते हैं, अब दृष्टि, दृष्टा और दृश्य एक दुसरे से अलग अस्तित्व नहीं रखते थी वैसे ही जैसे एक महँ संगीतकार अपने वाद्य और संगीत की ध्वनि कि समरसता में एक हो जाता है, उसी प्रकार योगी भी आत्मानंद में डूबकर सहज ही गोते लगता हुआ आध्यात्मिकता की सीढ़ियों को सहज पार कर जाता है।
Read Comments