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महिलाओ के जीवन का दर्दनाक अंत; Jagran Junction forum

Sushma Gupta's Blog
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महिलाओं के जीवन का दर्दनाक अंत के लिए दोषी केवल महिलाओं की अति महत्वाकांक्षा या मात्र पुरुष प्रधान रवैया में से किसी एक को स्वीकार करना नितांत आप्रासंगिक ही होगा. मेरे विचार से दोनों ही समान रूप से दोषी हैं.
उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त कुछ अन्य अनछुए महत्वपूर्ण पहलू भी हैं, जिनकी ओर यदि माता-पिता एवं ये हमारा समाज सजग हो तो किसी के भी जीवन का एसा दर्दनाक अंत कदापि नहीं होग. प्रश्न है कि ये जो महत्वाकांक्षा है, बह उनमें कैसै उपजी, उन्होंने पुरुष-प्रधान रवैयै को स्वयं के उपर प्रभावित होने का अवसर किन कारणों से दिया.
महिलाओं के जीवन के दर्दनाक अंत के लिए, आज का सामाजिक परिवेश पूर्णतया उत्तरदायी है. आज परिवारों में पाश्चात्य सभ्यता का बोलवाला है,एवं सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बन गया है, जबकि आज हमें फिर से अपनी भारतीयता को जीवित करना होगा. लगता है आधुनिकता की अंधी दौड़ में, सामाजिक मूल्यों की अनदेखी करने के कारण आज का युवा वर्ग दिशाहीन होकर ही अपने चारित्रिक मूल्यों को खोता जा रहा है.
आज बच्चों को अभिवादन के नाम पर अपने से बड़ों को भी हाय-वाय सिखलाया जाना,एवम् पाश्चात्य परिधानों का अधिकतापूर्ण उपयोग कराना भी उनमें विसंगतियों को जन्म दे रहा है.
शानो-शौकत की अंधी दौड़ में, वे प्रारंभ से ही बच्चों को मितवयता का पाठ पढ़ाना, आमदनी के हिसाब से न रहना अंजाने में ही सिखला देते हैं. कभी-कभी, अधिक गरीवी एवं अन्य परिवारिक कारणों से भी महिलाएँ ग़लत हाथों की कठपुतली वन जातीं हैं, जव परिस्थिति असहनीय हो जाती है,तो वे अपना अंतिम कदम आत्महत्या की ओर रख देतीं हैं.
आज देश की खराब क़ानून व्यवस्था ,भर्ष्टाचार,रिश्वतखोरी आदि कारणों से भी महिलाएँ पुरुषों के हाथों की कठ- पुतली बनतीं जा रहीं हैं. उपरोक्त कारणों के होते हुए भी यदि महिलाएँ कुछ सावधानियाँ एवम् थोड़ी सूझ-बूझ से कार्य करें,एवम् निम्न उपायों को अपनाएँ तो निश्चय ही उन्हें जीवन के प्रति सुरक्षा का आभास होगा. आधुनिकता की दौड़ में भी,वे भारतीयता को न भूलकर अपने पहने हुए परिधानों का आकलन करें कि कहीं उनसे शालीनता का हनन तो नहीं हो रहा.
शृंगार में भीशालीनता हो, न कि पुरुषों को मौन निमंत्रण देने बाला, जिसका ही लाभ वे अंजाने में उठाते हैं. मौज-मस्ती के लिए, पुरुषों के साथ गाड़ी में बैठना एवं सैर-सपाठे पर जाना हानिकारक हो सकता है, इसे समझें. पुरुषों द्वारा दिए हुए प्रिलोभानों में न फँसें,अकारण ही कोई किसी की सहायता नही करता,इसे समझें.
भारतीय संस्कारों को न भूलें,बड़ों के अनुभवों से सीख लें एवम् स्वदेशी अपनाएँ,तो पुरुष-प्रधान रवैया होने पर भी वे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करेंगी. अंत में, पुरुषों को भी इस बात को समझना नितांत आवश्यक है कि न केवल किसी महिला के जीवन का दुखद
अंत ही परिणाम को पहुँचता है, अपितु सज़ा तो पुरुष को भी मिलती है. समाज व क़ानून के शिकंजे से वह नहीं बच सकता. निष्कर्ष में, कहा जा सकता है कि-
अंजानी सी रहा तुम्हारी, पर भटक न जाना.
इन राहों में भी तुम पथ अपना एक बनाना.

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