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‘जीवन अद्भुत है’मानव तेरा तो, आँखें संजीवनी सी अनमोल
जाने के बाद ही इनके हे प्राणी,जान पाता है तू द्रष्टी-मोल
असहाय सा अब क्यों सोचता, कि सारे जगत में अंधकारहै,
जब रूठ के जाने लगीं आँखें ,तोजाना सूना सब संसार है
नैनों की वह डूबती सी ज्योति,अब तो है सफ़र कालीमा का
जीवन की ढलती शाममें डूबता सूरज,अवशेष है लालिमा क़ा
हो रहा स्मरति-वोध असहाय, अबोध उन द्रष्टी-विहिनों का
रोशनी की एक किरन को तरसते, उन मासूम गमगीनों का
कैसै जीतें है,जो आकर भी दुनियाँ में,नहीं देख पाते इसको
तब भी वे ही सुखीं हैं, नहीं देख पाते छल-दोष किसी के
तन की न सही,मन की आँखों से देखते शायद वो रव को
छल,प्रपंच,अधर्म की दुनियाँ में नहीं चाहते देखना-किसी को
जो अनदेखी में नेत्र मूंदकर,मानवता पर करते घात अनेको
नेत्र-तरेर,सूखी लकड़ी सी अकड़ में देखते न सुखी किसी को
ऐसे पथ-भ्रष्टमानव के तो तन-मन दोनों में ही द्रष्टी-दोष है,
हो पाते न वे स्वयं कभी सुखी,अन्यों को भी दे देते रोष है.
यथार्थ में द्रष्टी-विहीन वे ही जो पापों की अनदेखी में जीतेहैं
निर्वल व असहाय को सताते मौज- मस्ती कीं मय पीते हैं
आज हे मानव द्रष्टी-महिमा को पहचान तू लेकर एक संकल्प
देकर नेत्रहीनों को आँखें,पश्चात-म्रत्यु, पुनर्जीवन का पा विकल्प
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