Menu
blogid : 11910 postid : 62

“आज के युग-परिवेश में ‘श्रीरामचरित-मानस’ की उपयोगिता”

Sushma Gupta's Blog
Sushma Gupta's Blog
  • 58 Posts
  • 606 Comments

आज जगत के कोने- कोने में मारकाट एवं अन्य हिंसात्मक प्रव्रत्तियों का जन्म हो रहा है,

जिससे प्रतिदिन हज़ारों मानवों का संहार हो रहा है एवं करोड़ों, अरबों की

संपत्ति एक- दूसरे के विनाश के लिए खर्च की जा रही है… ऐसा प्रतीत होता है कि

विज्ञान की सारी शक्ति इस धरा को शमशान के रूप में परिणित करने में लगी हुई हैं.


संसार के बड़े-बड़े मस्तिष्क संहार के नये- नये साधनों को ढूँढ निकालने में लगे हुए

हैं …ऐसे समय में संपूर्ण जगत में सुख- शांति एवं प्रेम का प्रसार करने तथा दिग्भ्रमित

मनुष्यों को श्री रामचरित-मानस का अनुशीलन अंधकार में भटकने पर रोशनी की एक

किरण के सद्र्श्य है…


‘श्री रामचरित-मानस’ संसार का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ कहा जा सकता है, क्योंकि यह

‘सर्वजन हिताय’ है, जो ‘विश्व-वंधुत्व’ एवं ‘वसुधैव-कुटुंवकम’ की शिक्षा प्रदान करने वाला

एकमात्र अनूठा एवं रहस्यमय ग्रंथ है. इस महान ग्रंथ के विषय में यह स्पष्ट करना

आवश्यक प्रतीत होता है कि यह किसी समाज, राष्ट्र एवं किसी सरकार द्वारा दी गयी

मान्यता का मोहताज तो कदापि नहीं है, अपितु यह तो एक शक्तिशाली, आदर्श,

कर्तव्यनिष्ठ, एवं परिपक्व प्रभावशाली समाज की स्थापना हेतु सुसंपन्न सोपान है, जो

आज के समसमायिक परिवेश में व्यक्ति, समाज व राष्ट्र-हित में पूर्ण प्रासंगिक है…


‘श्री रामचरित-मानस’ में किसी व्यक्ति एवं किसी समुदाय विशेष के हित

की बात नही की गयी, अपितु संपूर्ण विश्व-वंधुत्व ही इसमें समाहित है.


तभी तो गोस्वामि तुलसीदास जी कहतें हैं—


”सियाराममय सब जग जानी

करूँ प्रणाम ज़ोरी जुग पानी”


आज के जीवन में जब संयुक्त परिवार बिखरने के कगार पर हैं, तब

इन परिवारों में अलगावबाद की समस्या से निपटने के लिए, एवं

आपसी एकता, मेल-जोल, भाईचारे को बढ़ाने के लिए ‘श्री रामचरितमानस’

में वर्णित राम के आदर्श-चरित्र को प्रासंगिक रूप से देखा जा सकता है.


निम्न पंक्तियों में राम का अपने भाईयों के प्रति प्रेम प्रदर्शित होता है…..


”राम करहीं भ्रातन पर प्रीति

नाना भाँति सिखावहीं नीति”


साथ ही कर्म को प्रधानता देते हुए तुलसीदास जी कहतें हैं ….


”सकल पदार्थ हैं जग माही.

कर्महीन नर पावत नाही”


आज के युग परिवेश में व्यक्तिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से दोहरी

नीति अपनाई जा रही है, अर्थात एक ही वस्तु को दोहरे रूप से प्रस्तुत

किया जा रहा है, समसमायिक राजनीति में ‘मुखौटे’ लगाने की बात कही जाती

है, जिसके कारण समाज में स्थिरता व ज्ञान का अभाव होता जा

रहा है, आज सत्यता को पहचानना कठिन है. बिभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ

तो अपने निजी स्वार्थ के लिए अपने मत के साथ ही अपना दल [पार्टी]

तक बदल लेती हैं, जिससे बेचारी जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों स

निराशा का अनुभव करती है, ऐसे में राम के पिता दशरथ जी के उन वचनों

को याद करना उचित होगा ,जब उन्होने दिए गये वचनों के लिए अपने प्राण

भी दे दिए थे, एवं समाज को एक अनिर्वचनीय संदेश दिया था…


”रघुकुल रीति सदा चली आई,

प्राण जाएँ पर वचन न जाई”


आज समाज में आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी जाती-पाती एवं छुआछूत का

सर्वत्र बोलबाला है इसे समाप्त करने हेतु हमें फिरसे रामचरित-मानस में वर्णित

उधाहरणो से प्रेरित होना होगा. श्री राम जी के द्वारा निम्न जाति के केवट को

गले लगाना, एवं भील जाति की शबरी के घर जाकर उसके झूठे बेर प्रेमपूर्वक खा

लेना ही समाज को एक सार्थक संदेश देता है…..


”करी पूजा कही वचन सुहाय

दिए मूल फल प्रभू मन भाय”


रामचरित मानस में परस्पर त्याग की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई है,

सर्वप्रथम श्री रामजी का सत्ता त्याग, भरत जी का भी सत्ता के प्रति मोह का न

होना और लक्ष्मण जी का पत्नी सहित सर्वत्र त्याग आज भी जन-मन में प्रेरणा

का संचार करने वाला है.. लक्ष्मण जी ने तो अपने भाई एवं माता तुल्य भाभी

की रक्षा हेतु उनके साथ रहकर चौदह वर्षों तक अपनी नींद, नारी, भोजन, शयन

आदि सब त्यागकर वीरासन में रहने का व्रत लिया था, जिसे उन्होनें पूरा करके

दिखाया.


यही नहीं, श्री राम के चरित्र में भी त्याग के साथ-साथ मर्यादा भी है, उनका हर

कार्य मर्यादा में था इसीलिए वे मर्यादापुरुषोत्तम कहलाए. इसके साथ ही दोनो भाई

बुद्धि, विवेक, विनयशीलता, कौशल व कर्मठता के प्रतीक हैं, एक स्थान पर लक्ष्मण

जी कहते हैं…


”कादर मन कहुँ एक आधारा

दैव- दैव आलसी पुकारा”


एक स्थान पर कुबुद्धि रावण को भी विभीषण जी ने समझाने की कोशिश की थी

जिसे आज के दिग भ्रमित समाज को भी समझना होगा…


” सुमति-कुमति सबके उर रहहीं, नाथ, पुराण-निगम अस कहहीं

जहाँ सुमति, तहाँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निदाना”


श्री राम चरित मानस में समाज के सम्मुख प्रत्येक पात्र में किसी न किसी गुण का

समावेश है, परंतु श्री हनुमान जी, का चरित्र तो जैसे संपूर्ण गुणों की ख़ान ही है, वे तो

विद्या, बुद्धि, एवं बल के ही भंडार हैं, परंतु अपने प्रभु राम के प्रति अनन्य भक्ति एवं

दीनतापूर्ण समर्पण मानव को यह सोचने पर मजबूर करता है कि मनुष्य स्वयं में

कितना तुच्छ है, जो कोई ज़रा भी उन्नति पाकर अभिमानी हो जाता है, जबकि उसे

जानना होगा कि श्री हनुमान जी अपने योग बल के कारण तीनों लोकों में सर्वशक्ति-

मान व इतने बलशाली थे कि तीनों लोकों में भी उनके समान कोई नहीं था, उस अदम्य

एवं अद्भुत तेज को केवल वे स्वयं ही संभाल सकते थे …


”आपन तेज संभारो आपे, तीनो लोक हांक ते काँपे ”


श्री राम के राज्य में सभी सुखी थे, सब मिलजुलकर अपने- अपने धर्म का पालन करते

हुए रहते थे, सभी वर्णो के लोगों में आपसी सदभाव था…


”वर्णाश्रम निज -निज धरम निरत वेद पथ लोग

चलहीं सदा पावहीं सुखही नहीं भय शोक न रोग”


इस प्रकार राम-राज्य में सब सुखी थे, वहाँ दुःख तो लेश-मात्र भी न था .सब ओर शांति

का साम्राज्य था…


”सव नर करहीं परस्पर प्रीति, चलत स्वधर्म निरत श्रुति रीति

‘ नहीं कौउ अवुध न लक्षण हींना, नहीं कौउ दुखी न दीना”


निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि श्री रामचरित-मानस पुण्य-रूप, पापों का हरण करने

वाला, सदा कल्याणकारी, बुद्धि व भक्ति को देने वाला, परस्पर सौहार्द की भावना जगाने

वाला, माया, मोह व मल का नाश करने वाला, परम निर्मल, प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण

एवं सर्व-मंगलमय है. जो मनुष्य इस मानसरोवर में गोता लगातें हैं, वे संसार रूपी-सूर्य

की अति प्रचंड किरणों से नहीं जलते…



आज के परिपेक्षय में संपूर्ण जगत में सुख-शांति एवं प्रेम का प्रसार करने तथा दिग्भ्रमित

मनुष्यों को श्री रामचरितमानस का अनुशीलन अंधकार में भटकने पर रोशनी की एक

किरण के सद्र्श्य है…


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply