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स्वर्ग की चाहत

Sushma Gupta's Blog
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जिस स्वर्ग की चाहत में, मानव रहता तू दिन-रैन

ऋतुराज ‘वसंत’ लाता धरती पर, देख खोल के नैन

‘मधुमास’ तुम्हारे स्वागत में, बुने नये गीत नये बैन

निज नव-गीतों, नूतन-सपनों में मिले सुख-चैन


इस नैसर्गिक सी बेला में आशा, उत्कंठा जाग उठीं

आज देख तुम्हें, ये कैसी उल्लास-भरी सब नाच रहीं

भावों के रंगीले परिधानों में लिपट-सिमट,सजी-धजी

मन- बगिया में सुवासित सुख- सरसों सी फूल रहीं


रंग-बिरंगी तितलियों सी उड़ खुशियों से इठला रहीं

कभी बैठ फूलों के आँचल में, कभी पवन में उड़ती सी

कभी मदहोश यौवनाओं सी निज- रूप ही निहार रहीं

दिग-दिगंत देख कामदेव सभी हास-परिहास करती सी


आज कुसुमों से सज़ा-धज़ा यह चमन भी मुस्कुरा रहा

कुछ अल्हड़ सी लताओं के सम्मुख प्रणय-गीत गा रहा

मंत्र-मुग्ध सी लताएँ भी सुंदर सुमनो से लिपटने लगीं

फूलों की डाली झुकीं, जैसे धरती आकाश से मिल रही


मलय-पर्वत से आ पवन भी इनमें निज राग मिला रहा

शीतल बयार की रागिनियाँ गा, फ़िज़ा मस्त बना रहा

‘बसंतोत्सव’ में हर्षित ‘फाग’ भी सातों रंग ले आ गया

होरी खेलो ‘वासन्ती’ संग, आज मन खुशी से नहा गया


खग-मृग-वृंद सब हिलोर रहे, बन-मयूर भी नाच रहे,

अमुवा पर कोयल कूक रही, डालो पर पक्षी डोल रहे .

कलरव कर कुछ बोल रहे, विधि से बस यही माँग रहे,

मत देना प्रभु मानव सा जीवन, जिसमे कलह सदैव रहे.


हम तो मूक प्राणी, निश्चल, हममें मानुष जैसा ज्ञान नहीं,

नहीं रखते निज-खजाना, इसीसे हमें कोई अभिमान नहीं.

कभी वन-वन विचरते, तो कभी डाल-डाल फुदकतें हम,

प्रकृति के इसी आगोश में, जीतें है जीवन का हर पल.

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