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क्या इंसानी लालच की वज़ह से नाराज़ है प्रकृति?
इस सन्दर्भ में पूर्ण-विचार के पश्चात मेरा जवाब केवल ‘हाँ’ है, क्योंकि आज
इस गतिशील युग में मानव ‘तेज विकास’ की तर्ज पर सब-कुछ पा लेना
चाहाता है. इसी कारण तेज विकास के इस लालच में मानव ने न
केवल प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना शुरू किया, बल्कि अपने
भावी पीडी के हिस्से के संसाधनों को हड़पने में भी आज वह अग्रणी
बन गया है. उसने कहीं अधिक मात्रा में कोयला खनन करके पृथ्वी
को खोखला कर दिया, तो कहीं वृक्षों का अधिकतम कटान करके न
केवल गगनचुंबी इमारतें बना डालीं, बल्कि पहाड़ों को भी नहीं बख्शा.
इस बात से शायद अंजान था कि प्रकृति एक दिन इसका बदला ले
लेगी और वर्षों में बनाई गई उसकी यह सारी सुख-संपदा कुछ पलों
में ही नष्ट कर देगी …
वर्तमान में आई भयंकर ‘त्रासदी-पूर्ण’ आपदा के लिए कुछ बुद्धिजीवियों के
द्वारा मानव को ही इसका ज़िम्मेदार मानना सर्वथा उचित ही प्रतीत हो
रहा है. सहज व विलासिता-पूर्ण जीवन-यापन हेतु मानव असहज विकास
की ओर उन्मुख हो उठा है, यह उसकी क्षणिक लालच की प्रवृत्ति का स्पष्ट
परिणाम दृष्टि-गोचर होता है ..
जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में बद्रीनाथ, केदारनाथ एवं आसपास के
पर्यटन को बढ़ावा देने वाले पहाड़ी स्थलों पर श्रद्धालुओं तथा पर्यटकों
की जो वृद्धि हुई है ,जिसकारण से वहाँ प्रदूषण और तापमान में भी
उल्लेखनीय वृद्धि हो गई है, परिणाम-स्वरूप पहाड़ों पर बने बर्फ के
अनेको ग्लेशियर पिघलने लगें है, जो अब अनेकों छोटी-बड़ी झीलों के
रूप में परिवर्तित हो चुके हैं. वैज्ञानिको द्वारा भविष्य में इन अनचाही
झीलों की संख्या और अधिक मात्रा में होने की संभावना जताई जा
रही है. इसके परिणाम अत्यंत ही भयानक व हानिकारक हो सकते
जिनसे वहाँ रहने बाले लोगों की बस्तियाँ अपना अस्तित्व खो सकती
हैं, अतएव सरकार को पर्यटन को बढ़ावा देने के पूर्व वहाँ ‘प्रदूषण’ को
एक सही नीति निर्धारण के मानको के आधार पर नियंत्रित करना होगा ..
पूर्व में बनाए गये ‘बाँध’ के कारण भी, केदारनाथ के आसपास की बहती
हुई मंदाकिनी, अलखनंदा, भागीरथी आदि नदियों ने भी अपनी विकरालता
अभी से ही दिखलानी शुरू कर दी है, और वहाँ आसपास बसी हुई बस्तियों
की ओर अपना रास्ता बना रहीं हैं, यदि शीघ्र ही इन नदियों का मार्ग अन्यत्र
नही मोड़ा गया तो वहाँ भीषण तवाही की संभावना हो सकती है…
वर्तमान में सहज व विलासिता-पूर्ण जीवन-यापन हेतु मानव असहज विकास
की ओर उन्मुख हो उठा है, यह उसकी क्षणिक लालच की प्रवृत्ति का स्पष्ट
परिणाम दृष्टि-गोचर होता है ..
निःसंदेह, आज हमारी अपनी ग़लतियों की वजह
से ही इस भीषण आपदा से हमें रूबरू होना पड़ा है, जिसमें न जाने कितनी ही
हज़ारों ज़िंदगियाँ काल के गाल में समा गईं, कितनों ने अपनो को खो दिया, एवं
कितनों के आशियाने उस आपदा की भेंट हो गये ,अब वे हज़ारों बेचारे लोग
न तो जीने की स्थिति में हैं और न मरने की स्थिति में है. परंतु कुछ मूर्ख
व स्वार्थी लोग अब भी विकास का रोना रोकर आने वाले भविष्य में भी ऐसी
ही ग़लतियाँ दोहराने की योजनाएँ बना रहें हैं…जो नितांत अव्यवहारिक है…
वास्तव में आज जिस उद्देश्य को लेकर मानव प्रगति की ओर बढ़ रहा है, वह
केवल उसकी दिशाहीनता को दर्शाता है, जिससे वह केवल विनाश की राह पर
ही जा रहा है, उसके द्वारा अवैज्ञानिक तरीक़ों से कार्य करने के कारण ही आज
प्रकृति उससे नाराज़ हो उठी है, इसी कारण वर्तमान में प्रकृति ने जो रौद्र-रूप
दिखाकर अपनी विनाश-लीला का तांडव रचा, यह तो लगता है कि प्रकृति की
ओर से मात्र एक चेतावनी-भर है. इसलिए मानव को सही विकास पाने के लिए
उसके सही नितांत वैज्ञानिक आधार तलाशने होंगे ,जिनसे प्राकृतिक -रूप
से जन-धन की हानि भी न हो और उचित विकास भी हो सके, इसके लिए
अंधाधुंध पेड़ों को काटना अथवा भूमि का अवैध खनन करना सही नही है….
आज पहाड़ों को डायनामाइट आदि से नष्ट करने के कारण हमारी सीमाओं के
रक्षक हिमालय को भी ख़तरा पैदा हो गया है, जो सीमाओं पर तो हमारी रक्षा
करता ही है, बलकि गंगा के तीव्र वेग को भी नियंत्रित करके उसे सही गंतव्य
की ओर ही प्रवाहित होने में सहायक होता है ..
जो कुछ लोग मूर्खतावश ये सोचते है कि बड़े पैमाने पर विकास करने हेतु कुछ
समझौते तो करने ही पड़ते हैं, वे ऐसा सोचकर महज मानवता के विनाश को ही
न्यौता दे रहें हैं…समझौता करने के कारण ही आज विनाश की भयानक तसवीर
उनके सम्मुख है ,,,
यदि ज्योतिष्-शास्त्र के अनुसार ‘सुपर-मून’ को इस तबाही का कारण माना जाए तो
वह भी पूर्णतया सही नहीं है, क्योंकि जब हमारे विकास का तरीका अव्यवहारिक एवम्
अवैज्ञानिक है तो फिर इसके लिए अन्य आधार नगण्य ही हैं, यदि ‘विकास’ बिना
किसी लालच व पूर्ण वैज्ञानिक धरातल पर हो तो प्रकृति भी हमारे ही नियंत्रण में
होकर कार्य करेगी, जैसे की वह कई सौ वर्षो पहले पर्यावरण में संतुलन बनाकर अपना
कार्य सहज रूप से करती थी. परंतु अब प्रकृति की अवहेलना मानव को पल ही में पुनः
‘महाविनाश’ की ओर ले जा सकती है ,अतः प्रकृति को नाराज़ किए बिना सही मूल्यों
का आकलन करके ही तथ्य-परक विकास संभव है…
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