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हर किरदार में ”शौक ए मौहब्बत” की जुदा ‘तासीर’होती
कभी यह दिली हमदम तो कमबख्त कभी ”वेबफ़ा” होती
हरअक्श में नजर आये खुदा तो बस उसी का ”नूर” होती
गरलौ लगाली ‘साहिव’ से तो सिर्फ़ उसीकी ”बंदगी” होती
फ़िजा में खुशबू रिश्तोंकी महके तो इक हसीं ”फूल” होती
पड़ जाए किसी जालिम के गिरेवां में तो’सुपुर्देखाख़’ होती
गिरे ग़र किसी गरीब की चौखट पे तो ”सरपरस्त” होती
दिलों में मज़ाक की खातिर महज़ एक ”आवारगी” होती
क़द्र करे ग़ैरों की खुद से भी ज़यादा तो बड़ी”मेहरबाँ”होती
बांटे जो धर्म के नाम पे तो उस मुल्क की वो”तौहीन”होती
बने यतीमों का सहारा तो जमी पे ही ”इनायतें खुदा” होती
राहे-मंजिलों में गर छोड दे आशिक को तो ”वेवफ़ा” होती
जमाने की ख़ातिर मिटादे वज़ूद खुद का तो ”तारीफ़” होती
ख़ालिश हो जाए गर हुस्न की दीवानी तो ”शर्मिंदगी” होती
गूँजते हर दिल ‘शौक ए मौहब्बत’ तराने तो हमसफ़र होती
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